कविता
बस चलना शुरु हुईं, मैंने बैग में से किताब निकाली और बैग को ऊपर सामान रखने वाली जगह पर रख दिया। मानव कॉल का लिखा मुझे हमेशा अच्छा लगता है, उनकी लिखी किताबें इतनी गहरी होती हैं की आप उसे खुद में महसूस करने लगते हो। मैं उनका ही लिखा एक उपन्यास "तितली" पढ़ रहा था। "मृत्यु" इस उपन्यास का मुख्य केंद्र थी।
शहर से निकलने से पहले ही बस एक ओर स्टॉप पर रुकी। वहाँ से एक लड़की चढ़कर मेरी बगल वाली सीट पर आकर बैठ गईं। बस चल दी।
थोड़ी देर बाद अचानक वो लड़की बोली की देखो बाहर कितना अच्छा मौसम हो रहा है। इस उपन्यास की कहानी इतनी रोचक थी की मेरा ध्यान एक पल के लिए भी किताब से नहीं हटा था। मैंने खिड़की से बाहर देखा, मौसम वाकई काफी सुहावना था।
मैं बोला " हांँ! काफी अच्छा है" और वापस पढ़नें में लग गया।
वह बोली "अरे वाह तुम तितली पढ़ रहे हो! मुझे भी ये किताब पढ़नी थी, मैंने कल ही ऑर्डर करी है"
यह सुनकर मैंने पहली दफा उसके चहरे की तरफ देखा। बड़ी बड़ी आंँखें, माथे पर चंदन का तिलक, होठों पर सरल सी मुस्कुराहठ। उसके चेहरे में तेज था और वो चमक रहा था।
बड़ा ही जाना पहचाना चेहरा लग रहा था उसका, ऐसा लग रहा था की मैं इस चेहरे को कई सालों से काफी गहराई से जानता हूंँ।
उसने मेरी आंँखों के सामने चुटकी बजाई और बोली कहा खो गए तुम?
मैं वापस वर्तमान में आया और
मैंने उससे पूछा - तुम जानती हो मानव सर को? क्या तुमने इनकी कोई किताब पढ़ी है पहले?
वो - अरे हांँ, मानव सर को कौन नहीं जानता, मैंने अभी हाल ही में इनका "शर्ट का तीसरा बटन" उपन्यास पढ़ के खत्म किया है।
मैं - अरे वाह, मैंने भी पढ़ा है उसे, वह काफी अच्छा उपन्यास है।
कुछ देर के लिए हम दोनों उस उपन्यास की चर्चा में लग गए। मैं उपन्यास के मुख्य पात्रों "राज़िल" और " गज़ल" के बारे में बात कर रहा था। फिर मैंने उस से पूछा तुम्हें कौनसा पात्र सबसे अच्छा लगा।
वो बोली " मनीष "।
मुझे एकदम से याद आया की उपन्यास में एक मनीष नाम का भी पात्र था। मैंने उस से कहा " अरे मैं तो भूल ही गया था "मनीष" को!" तुम्हें उसमें क्या अच्छा लगा?
वो हँसी और बोली की "बस यही की सब उसको भूल जाते है यहां तक की राज़िल भी पर फिर भी वो अपनी दोस्ती अच्छे से निभा जाता हैं।
मैं मुस्कुराया!
वो - क्या तुम अभी जो पढ़ रहे हो वो पढ़ के मुझे सुना सकते हो?
मैं - मैंने ये उपन्यास लगभग आधा खत्म कर लिया हैं! क्या तुम इसे बीच में से सुन ना पसंद करोगी?
वो - मुझे किताबें बीच से पढ़ना अच्छा लगता है, तुम पढ़ो!
जो पन्ना खुला हुआ था, मैंने वहीं से पढ़ना शुरू किया।
मैं पढ़ रहा था वो मुझे बड़े ध्यान से सुन रही थी।
थोड़ी देर में उसने अपना सिर मेरे कन्धे पर रख दिया, उसके स्पर्श मात्र से ही मैं पढ़ता हुआ रुक गया।
वो बोली " तुम रुक क्यूंँ गए, कितनी गहरी लग रही है ये कहानी!"
मैं - " बस ऐसे ही "
और मैंने फिर पढ़ना शुरू कर दिया।
उसका सिर मेरे कंधे पर था, उसकी गर्म साँसों को मेरे कान महसूस कर सकते थे। मुझे उसका स्पर्श बड़ा जाना पहचाना लग रहा था, ऐसा लग रहा था की मैं उसे बहुत अच्छे से जानता हुंँ, मेरा मन अब पढ़ने में कम और उसके बारे में सोचने में ज्यादा लग रहा था।
एक चैप्टर पढ़ने के बाद मैं खिड़की से बाहर देखने लगा। वो अब मुझे मेरे मन में महसूस होने लगी थी।
एकाएक मेरे मन में पता नहीं क्या आया और मैं उस से पूछ बैठा की " तुम्हारा नाम क्या है? तुम मुझे बहुत जानी पहचानी सी लग रही हो!"
वो बोली मेरा नाम "कविता" है।
मैंने कंधों पर खालीपन महसूस किया और अपनी गर्दन उसकी ओर मोड़ी, पर मेरी बगल वाली सीट खाली थी।
यह देखकर मैं भौचक्का सा रह गया। मेरी धड़कनें तेज होने लगी, मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि एकदम से वह कहाँ चली गईं, अभी तो कोई स्टॉप नहीं आया। मैंने इधर-उधर नज़रें घुमाई पर वो नहीं दिखी।
मैंने हड़बड़ाहट में दूसरी तरफ बैठे आदमी से पूछा की आपने मेरे बगल वाली सीट पर बैठी लड़की को देखा क्या? वो कहाँ चली गई?
वो आदमी मुझे बड़ी अजीब नज़रों से देखने लगा और हंँस कर बोला की ये सीट तो जब से बस चली तब से खाली ही पड़ी हैं, भाई आप कौनसी लड़की की बात कर रहे हो!
मुझे अब भी विश्वास नहीं हो रहा था। मैंने एक बार फिर सीट को गौर से देखा, वहाँ मुझे एक पन्ना दिखाई दिया। मैंने उसे उठाया। उस पर अमृता जी की कविता की कुछ पंक्तियांँ लिखी हुई थी -
"मैं तुझे फिर मिलूँगी कहाँ कैसे पता नहीं, शायद तेरी कल्पनाओं की प्रेरणा बन तेरे कैनवास पर उतरुँगी, पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रूर मिलूँगी।"
एक "कविता" मेरे इस सफ़र में एक सुखद एहसास बन कर आई और मंज़िल तक पहुंँचने से पहले ही चली गईं।
शायद किसी ओर सफ़र पर उस "कविता" से फिर मुलाकात होगी...
- मनीष
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